मृदा क्षरण या मृदा अपरदन SOIL EROSION

मृदा क्षरण या मृदा अपरदन SOIL EROSION

परिभाषा – मृदा के कणों का किन्ही बाह्य शक्तियों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाना मृदा क्षरण कहलाता है। साधारण भाषा में इसे मिट॒टी का कटाव भी कहते है।
मृदा क्षरण 2 प्रकार से होता है – 

प्राकृतिक मृदा क्षरण

मृदा के कणों का प्रकृति  द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाना प्राकृतिक मृदा क्षरण कहलाता है।
यह निम्न प्रकार का होता है

1. जल द्वारा मृदा क्षरण :-

अपस्फुटन (स्प्लेश इरोजन) –
  • वर्षा की प्रारभिक बूदो द्वारा मृदा कणों का अपने रथान से छिटकना।
  • यह जल द्वारा क्षरण की प्रथम अवस्था है।

परतदार क्षरण (शीट इरोजन) – 

  • खेत की पतली उपजाऊ परत का बह जाना।
  • किसानो द्वारा इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है. इसलिए इसे अदृश्य क्षरण भी कहते है।

क्षुद्र नालिका क्षरण (रिल इरोजन) – 

  • खेत में उगलियो के समान पतली नालियाँ बनना ।
  • ये नालियाँ सामान्य भूपरिष्करण क्रियाओं से समतल हो जाती है।

अवनालिका क्षरण (गली इरोजन) – 

  • ये नालियाँ सामान्य भू परिष्करण द्वारा समतल नहीं की जा सकती है।

खडड क्षरण (रिवाइन इरोजन) –

  • ये क्षरण मुख्यत पहाडी इलाको मे पाया जाता है।

मूस्खलन –

  • जल + मृदा – बहुत हानिकारक
सरिता तीर क्षरण – 
  • नदियों के किनारे पाया जाता है।

2. वायु द्वारा –

निलंबन (सस्पेंशन) 
  • 01 MM से कम आकार के कणो का वायु द्वारा क्षरण।
  • इस अवस्था में मृदा का कण सैकडो किलोमीटर तक विस्थापित हो जाता है।

उच्छलन (साल्टेशन) 

  • 01- 05 MM के आकार के कणों का वायु द्वारा क्षरण।
  • कुल वायुक्षरण का 50-70 % इसी अवस्था मे होता है।
  • यह वास्तव में मृदा कणो के उछल कूद की एक श्रखला है। सर्वाधिक वायुक्षरण इसी अवस्था में होता है।

सतह विसर्पण (सरफेस क्रीपिंग)-

  • 0.5 mm से बडे कणों का मृदा पर वायु के प्रभाव के कारण घसीट कर चलना।
  • कुल वायुक्षरण का 5 से 25 % इसी अवस्था मे होता है।

3. वेव क्षरण – 

  • जल एवं वायु द्वारा सयुक्त रूप से किया जाने वाला मृदा क्षरण।
  • उदा – नहरो के किनारे वाले क्षेत्रों मे पाया जाता है।

कृत्रिम क्षरण/मानव द्वारा/ त्वरित क्षरण –

रेलवे लाइन, सडकें, पुल, नहरे, पाइप लाइन आदि मानवीय गतिविधियो के द्वारा होने वाला मृदा क्षरण।

मृदा क्षरण को प्रभावित करने वाले कारक –  

  • मृदा की किस्म
  • वर्षा की मात्रा एवं गति
  • स्थलाकृति अथवा ढलान का कोण
  • मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा
  • वनस्पति की उपस्थिति

मृदा संरक्षण –  मृदा क्षरण को कम करना ही मृदा संरक्षण कहलाता है।

वायु द्वारा होने वाले क्षरण को कम करने के उपाय –
  • विंडब्रेक – खेत की उत्तर – पश्चिम दिशा में वायुरोघी वृक्ष लगाना।
  • शेल्टर बेल्ट – निर्जीव पदार्थ की दीवार बाढ अथवा वृक्षों की कतारो के साथ झाडिया लगाना।

जलद्वारा होने वाले क्षरण को कम करने के उपाय :- 

 
1. ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई – मृदा में कठोर परत को चिजेल हल की सहायता से तोडा जाता है।
2. पलवार अथवा मल्चिंग:- 
  • पॉलीथीन मल्च – गर्मी में – सफेद पॉलीथीन सर्दी मे – काली पॉलीथीन
  • स्ट्रोमल्च (चारा) – गेहू, जौ का भूसा उपयोग करते है।
  • लकड़ी मल्च – कपास के तने का उपयोग किया जाता है ।
  • वर्टीकल मल्च – इसमे फसलों के अवशेष तथा मिट्टी को उपयोग करते है। यह काली मृदा में उपयोग मे की जाती है इसका प्रयोग साधारणतः कॉफी में किया जाता है
  • डस्टमल्च – मृदा की ऊपरी 5 cm परत को भुरभुरी बना दिया जाता है।
 3. कंटूर खेती – यह 6 % तक ढलान वाले क्षैत्रों मे अपनाई जाती है।
4. बेंच टेरेसिंग – 16 – 33 % तक ढलान वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है।
5. जिंग टेरेसिंग – 2 -10 % तक ढलान वाले क्षैत्रों में अपनाई जाती है।
6. पट्टीदार खेती।
7. ढलानों पर घास उगाना।
8. कवर फसलें उगाना – दलहनी फसलो से मृदा क्षरण कम होता है। क्योकि यह कम समय में अधिक वानस्पत्तिक वृद्धि करते है। इसलिए इन्हें आच्छादित कवर फसल कहा जाता है। मूग, उडद, लोबिया, सोयाबीन।
9. रसायनो का उपयोग करके – मृदा में बिटूमीन तथा एसिटाइल एल्कोहल का उपयोग करने से मृदा मे ढेलों का निर्माण होता है। जिससे मृदा क्षरण कम होता है। शुष्क क्षेत्रों में पौधे मे जल की कमी होने के कारण प्रोलिन एमिनों अम्ल का निर्माण होता है।

महत्वपूर्ण बिंदु –

भारत में सर्वाधिक क्षण :- जल द्वारा क्षरण।
भारत मे सर्वाधिक जल द्वारा क्षरण उत्तर-पूर्वी भारत में होता है।
यदि खेत में 0.85 cm  के ढेले हो तो उस खेत मे मृदा क्षरण कम होता है।
K – मृदा इरोडेबिलिटी फ़ेक्टर मृदा की हानि 11 टन/है वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए।

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